शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

कारवाँ गुज़र गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से
,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
,
और हम खड़े
खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे!नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
,
पात
-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न
, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए
,
छंद हो दफन गए
,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये
,
और हम झुकेझुके
,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा

,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
,
एक दिन मगर यहाँ
,
ऐसी कुछ हवा चली
,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
,
और हम लुटे-लुटे
,
वक्त से पिटे-पिटे
,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
,
हो सका न कुछ मगर
,
शाम बन गई सहर
,
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखरबिखर
,
और हम डरे-डरे
,
नीर नयन में भरे
,
ओढ़कर कफ़न
, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे!माँग भर चली कि एक

, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं
, ठुमक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन
, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा
, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी
,
गाज एक वह गिरी
,
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
,
और हम अजान से
,
दूर के मकान से
,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।


-
गोपालदास नीरज

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