रविवार, 26 सितंबर 2010

मधु ऋतू

घोल दिया मधुऋतू ने अपना सब माधुर्य
अपनी सब मादकता अपना सब सौन्दर्य
एक एक कोपल में कलिका में फूल में
जीवन नव थिरक उठा , जीवन नव उबल उठा
एक एक डाली पर छा गयी लुनाई तरुण
एक एक कली शरमाई सौन्दर्य से
एक एक फूल फूल उठा रूप गर्व से
फूट पड़ी कान्ति किरण आतुर सौन्दर्य की
हँसते मुस्काते फूल हस्ते मुस्काते नयन
बोल रहे मनो कुछ मुखरित मौन में
करती स्पष्ट पिकी -- पिऊ कहाँ ! पिऊ कहाँ !
उत्तर में आते तत्काल भ्रमर गुंजन -रत
मधुऋतू जब बरस पड़ी क्रमबद्ध तालबद्ध
फिर भी कलियों का दोष ! फिर भी भ्रमरों का दोष !

लेखक - डॉ कृपा शंकर अवस्थी

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