गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

ना ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,


ना ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,
दिल मे मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए,
ना दुआ, ना खुदा, ना हाथों मे कोई तलवार चाहिए,
मुसीबत मे किसी एक प्यारे साथी का हाथों मे हाथ चाहिए,
कहूँ ना मै कुछ, समझ जाए वो सब कुछ,
दिल मे उस के, अपने लिए ऐसे जज़्बात चाहिए,
उस दोस्त के चोट लगने पर हम भी दो आँसू बहाने का हक़ रखें,
और हमारे उन आँसुओं को पोंछने वाला उसी का रूमाल चाहिए,
मैं तो तैयार हूँ हर तूफान को तैर कर पार करने के लिए,
बस साहिल पर इन्तज़ार करता हुआ एक सच्चा दिलदार चाहिए,
उलझ सी जाती है ज़िन्दगी की किश्ती दुनिया की बीच मँझदार मे,
इस भँवर से पार उतारने के लिए किसी के नाम की पतवार चाहिए,
अकेले कोई भी सफर काटना मुश्किल हो जाता है,
मुझे भी इस लम्बे रास्ते पर एक अदद हमसफर चाहिए,...........

बुधवार, 19 जनवरी 2011

ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में

ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है

...प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से

एक मनुष्य संचित करता है
अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से

पूज्यनीय को पूज्य मानने
में जो बाधाक्रम है
वही मनुज का अहंकार है
वही मनुज का भ्रम है

- रामधारी सिंह 'दिनकर'

शनिवार, 27 नवंबर 2010

हम तो हैं परदेस में

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर, कितना तनहा होगा चांद

जिन आँखों में काजल बनकर, तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर, अटका होगा चांद

चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद


ले ० -राही मासूम रज़ा

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

प्यार का स्पर्श

बह रही नदी आज
सोई अलसाई सी
रूचि कुछ अनमनी
पर छेड़ता है उसे
चंचल चपल वात
लहरें कुछ प्रगट हुईं
मन लहराया कुछ
ओढली नदी ने तभी
लहरदार .....चूनरी
उषाचुम्बित झिलमिली
सतरंगी ..... चूनरी
वही अनमनी रूचि
नृत्य करने लगी
लहरें सब दौड़ दौड़
क्रीडा करने लगी
मिलती गले से एक
रूठ जाती दूसरी
दूसरी के पीछे एक
दूर तक दौड़ती
लहरों में खौलता
बूँद बूँद जगमगाता
सौन्दर्य उबल उठा
सोया सौन्दर्य जगा
रूपराशि निखर उठी
निश्चय ही बिखर उठी
प्रेमिल स्पर्श से !
- डॉ. कृपा शंकर अवस्थी


कारवाँ गुज़र गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से
,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
,
और हम खड़े
खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे!नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
,
पात
-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न
, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए
,
छंद हो दफन गए
,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये
,
और हम झुकेझुके
,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा

,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
,
एक दिन मगर यहाँ
,
ऐसी कुछ हवा चली
,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
,
और हम लुटे-लुटे
,
वक्त से पिटे-पिटे
,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
,
हो सका न कुछ मगर
,
शाम बन गई सहर
,
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखरबिखर
,
और हम डरे-डरे
,
नीर नयन में भरे
,
ओढ़कर कफ़न
, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे!माँग भर चली कि एक

, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं
, ठुमक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन
, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा
, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी
,
गाज एक वह गिरी
,
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
,
और हम अजान से
,
दूर के मकान से
,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया
, गुबार देखते रहे।


-
गोपालदास नीरज

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

न किसी की आँख का नूर हूँ

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ाँ में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पढ़े फ़ातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढाये क्यूँ
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँफ़िशाँ मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुख की पुकार हूँ

- बहादुर शाह जफ़र

आग जलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


- दुष्यन्त कुमार

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

- शिवमंगल सिंह सुमन

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।


- माखनलाल चतुर्वेदी

बुधवार, 29 सितंबर 2010

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या

तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संसृति

भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!

तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय

खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!

तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही स्मित मिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला

फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या!

रोमरोम में नंदन पुलकित
साँससाँस में जीवन शतशत
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित

मुझमें नित बनते मिटते प्रिय
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या!

हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन
जीत बनूँ तेरा ही बंधन

भर लाऊँ सीपी में सागर
प्रिय मेरी अब हार विजय क्या!

चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम

काया छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या!

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या


- महादेवी वर्मा

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है


- हरिवंश राय बच्चन

रविवार, 26 सितंबर 2010

मधु ऋतू

घोल दिया मधुऋतू ने अपना सब माधुर्य
अपनी सब मादकता अपना सब सौन्दर्य
एक एक कोपल में कलिका में फूल में
जीवन नव थिरक उठा , जीवन नव उबल उठा
एक एक डाली पर छा गयी लुनाई तरुण
एक एक कली शरमाई सौन्दर्य से
एक एक फूल फूल उठा रूप गर्व से
फूट पड़ी कान्ति किरण आतुर सौन्दर्य की
हँसते मुस्काते फूल हस्ते मुस्काते नयन
बोल रहे मनो कुछ मुखरित मौन में
करती स्पष्ट पिकी -- पिऊ कहाँ ! पिऊ कहाँ !
उत्तर में आते तत्काल भ्रमर गुंजन -रत
मधुऋतू जब बरस पड़ी क्रमबद्ध तालबद्ध
फिर भी कलियों का दोष ! फिर भी भ्रमरों का दोष !

लेखक - डॉ कृपा शंकर अवस्थी

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।


- रामधारी सिंह दिनकर

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

कोशिश करने वालों की

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

- हरिवंशराय बच्चन

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

दयालुता की मृत्यु

जानी पहचानी बाज़ार में
सब दिन सी शाम आज भी
सब दिन सी भीड़ आज भी
करों की इस रेल पेल में
सड़क दौड़ती सी कुछ लगती
जगमग करती सभी दुकाने
और वहीं पटरी पर यह क्या ?
यहाँ पड़ी है गाय एक
जो तड़प चुकी दम तोड़ रही
हड्डी हड्डी ऊपर निकली
गर्दन पीछे घूम गयी है
बड़ी बड़ी दो आँखें
जिनमें द्रष्टि नहीं
निकली सी पड़ती
शीशे जैसी चमक रही हैं
एक पैर अब भी हिलता कुछ
उसी पैर से सटी हुयी
बैठी उसकी छोटी बछिया
शायद बैठी सोच रही हो
मेरी गैय्या, मेरी मैय्या
सोई गहरी नींद आज
बस आब उठती
अब दूध पिलाती
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कल कुछ नहीं वहां पर होगा
पर अवश्य ही मेरे मन पर
एक लकीर खिचीं पत्थर की
जो चिल्ला कर कहती रहती
तुम जिसको ईश्वर कहते हो
उसमें दया कृपा बस उतनी
जितनी दया कृपा बिजली में
और आणुविक उर्जा में
और कहूँ क्या गौभक्तों को
बन्दे खुदा को , ईशा की करुना वालों को
एक नज़र भी नहीं किसी ने देखा यह सब
करना तो बहुत दूर
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मैंने आज दांत पीसे हैं
आपने लाखों हमवतनो पर
चलो आज हो गया फैसला
आज शाम को दया मर गयी
और दयामय की दयालुता
बन बैठा है उनका वारिस
चट्टानी कर्त्तव्य वज्र सा
फौलादी कर्त्तव्य वज्र सा
जो उतना निश्दुर सशक्त
जितनी उर्जा , जितना ईश्वर
लेखक : डॉ० कृपा शंकर अवस्थी


मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

तुम प्रणय पुष्प और मैं गुंजन


तुम प्रणय पुष्प और मैं गुंजन
तुम अमृत रस मैं 'प्यासा मन'
मेरी तृष्णा बेकल-बेकल
तुम सरिता सी चंचल चंचल
इस सागर तक तुम आ जाओ
स्वीकार करो ये निमंत्रण
तुम प्रणय पुष्प और मैं गुंजन तुम
ग़ज़ल हो या हो ताजमहल
जो तुम्हें निहारे पल दर पल
मुझसे भी ज्यादा खुशकिस्मत
वो काँच का टुकड़ा, वो दरपन
तुम प्रणय-पुष्प और मैं गुंजन
तुम प्रीत का कोई गीत कहो
कभी मुझको भी मनमीत कहो
मुझा से न सही मेरी कविता से
इक बार तो कर लो आलिंगन
तुम प्रणय पुष्प और मैं गुंजन
ये मन है स्वप्न सजाता है
कभी रोता है कभी गाता है
इस मन की बात समझ लो तुम
बांधो न भले कोई बंधन
तुम प्रणय पुष्प और मैं गुंजन

लेखक : श्री विलास पंडित 'मुसाफिर'

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

आगाज़

आज मैं आपना ब्लॉग श्री हरीवंश रॉय बच्चन जी की इन पंक्तियों के द्वारा शुरू कर रहा हूँ

वृक्ष हो भले खड़े,हो घने, हो बड़े,एक पत्र छाँह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ

तू थकेगा कभी,तू थमेगा कभी,तू मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ

यह महान दृश्य है,चल रहा मनुष्य है,अश्रु, स्वेद, रक्त से,

लथपथ, लथपथ, लथपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ